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हवेली के अन्दर

रमा मेहता

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2139
आईएसबीएन :9788172018054

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अंग्रेजी उपन्यास ‘इन्साइड द हवेली’ का हिन्दी अनुवाद...

Haveli Ke Andar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय अंग्रेज़ी की सुप्रसिद्ध उपन्यासकार और समाजशास्त्री श्रीमती रमा मेहता (1923-1978) का जन्म लखनऊ में हुआ। आई. टी.कॉलेज, लखनऊ से स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने दिल्ली, मिशिगन तथा कोलंबिया विश्वविद्यालयों से क्रमशः दर्शन शास्त्र में एम.ए. तथा मनेविज्ञान एवं समाज शास्त्र में विशेष शिक्षा प्राप्त की। 1949 में वे विदेश सेवा के लिए चुन ली गई थीं। यह सम्मान तब भारत की पहली कुछ महिलाओं को ही प्राप्त था। सेवा-मुक्त हो जाने के उपरान्त उन्होंने देश-विदेश का खूब भ्रमण किया। उनके कई आलेख भी प्रतिष्ठित पत्रों में प्रकाशित हुए। श्रीमती मेहता अमरीका के रैडक्लिफ हार्वर्ड संस्थान की सदस्या रहीं और उन्होंने सौरबौन तथा एथेन्स में व्याख्यान भी दिये।

‘इन्साइड द हवेली’ को भारतीय अंग्रेज़ी साहित्य में वर्ष 1979 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनकी अन्य कृतियाँ हैं-‘रामू’ (उपन्यास) तथा ‘लाइफ़ ऑफ केशव’। उन्होंने भारतीय स्त्रियों से जुड़ी समस्याओं पर समाजशास्त्रीय ग्रन्थ भी लिखे हैं।

‘हवेली के अन्दर’ पुरस्कृत उपन्यास इन्साइड द हवेली का हिन्दी अनुवाद है। इसमें उदयपुर स्थित सज्जनगढ़ रियासत की सुप्रसिद्ध हवेली की अन्तरंग गाथा को बहुत ही प्रामाणिक ढंग से अंकित किया गया है। इसमें चार-चार पीढ़ियों के दुख-दर्द, हर्ष-विषाद तथा सामंतवादी रूढ़ियों एवं प्रगतिशील मूल्यों के टकराव और अन्तर्द्वंद्व को बड़ी कुशलता से उकेरा गया है।
प्रस्तुत कृति का हिन्दी अनुवाद श्रीमती कांति सिंह ने किया है।

 

हवेली के अन्दर
खण्ड 1
एक

 

 

उदयपुर कभी मेवाड़ की राजधानी हुआ करता था, मगर आज यह राजस्थान के कई दूसरे शहरों की तरह महज़ एक शहर होकर रह गया है। हालाँकि इसकी स्थिति में आए इसके बदलाव ने सौंदर्य को कम नहीं किया है और ना ही उस रहस्यमयता को घटाया है जो ‘पुराने शहर’ पर तारी है। शहर एक प्राचीर की दीवार से घिरा हुआ है जो चार सौ सालों के बाद धीरे-धीरे दमक रही है। इसमें बड़ी दरारें पड़ गयी हैं, फिर भी यह दीवार उदयपुर को दो हिस्सों में बाँटती है। नया शहर इस पुरानी दीवार के बाहर है और पुराना शहर इसके भीतर।

शहर के पश्चिमी हिस्से में पिछोला झील पड़ती है। मर्द इसमें नहाते हैं धोबी इसके किनारे अपने गधों की पीठ से गट्ठर उतारते हैं और कपड़े धोते हैं। घर का चूल्हा सुलगाने के पहले औरतें इसके किनारे पर बने मंदिर में आकर घंटियाँ टुनटुना जाती हैं। शहर को छूता हुआ झील का पानी गंदला है, और यहाँ तक कि इसमें कभी-कभी बदबू भी आती रहती है। ख़ास कर तब, जब बरसात कम होती है और झील लबालब भरी नहीं होती।

शहर के उत्तर में सीधा खड़ा सज्जनगढ़ है। पहाड़ी की गोद में। कभी यह घने जंगल से भरा हुआ था जिसमें राजा रजवाड़े बाघ चीतों का शिकार करते थे। गुरबे यहाँ आकर जलावन की लकड़ी के लिए टहनियाँ और शाखें चुना करते थे। लेकिन आज पेड़ सूखे और नंगे खड़े हैं। अब वह घनापन नहीं रहा जिसमें जंगल की ओर जाने वाली पगडंडियाँ गुम हो जाती थीं। उदयपुर में सब कुछ बरसात के आसरे हुआ करता है और जब बरसात नहीं होती, झीलें सूख जाती हैं, पेड़ झड़ने लगते हैं।

इसी प्राचीर में शहर की ओर खुलते हुए चार दरवाज़े हैं। इन विशाल दरवाजों के हर पल्ले पर कीलें लगी हुई हैं। जिन दिनों उदयपुर के राजाओं को मुगल शासकों के हमले के लिए हमेशा तैयार रहना पड़ता था, उन दिनों ये दरवाज़े रात को बंद कर दिए जाते थे। अब कोई खतरा नहीं है और इसीलिए वे कभी बंद नहीं किये जाते। शहर का सारा आवागमन इन्हीं की मार्फ़त होता है।

शहर में एक ही मुख्य सड़क है और यह राजमहल को जाती है। मगर कई छोटी-छोटी गालियाँ इस सड़क से फूटती हैं और शहर के भीतरी हिस्सों तक जाती हैं। कुछ गलियों में एक कार के गुज़र सकने तक की जगह है। बाकी गलियों में सिर्फ़ साइकिल वाले ही पार हो सकते हैं। इन चौड़ी सँकरी गलियों के दोनों ओर छोटी-छोटी दुकानें हैं। गलियों के इस जाल की मार्फ़त हर घर जुड़ा हुआ है और बच्चे एक घर से दूसरे घर तक जन्म, मृत्यु की सूचनाएँ बाँट सकते हैं। मुख्य सड़क के दोनों ओर बड़ी दुकानें हैं जो हमेशा भरी रहती हैं। इनकी छतों से लटकते गुलाबी सिल्क सहित आने जाने वालों को लुभाते रहते हैं।

 
पहाड़ की चोटी पर उजला ग्रेनाइट महल है जहाँ चार सौ सालों तक राणा का दरबार सजता रहा और यहाँ से पिछौला झील दिखाई पड़ता है। और झोंपड़े हुआ करते थे। वे महल की चमक-दमक देखते, हाथियों की चिंघाड़ सुनते और संतुष्ट रहते। वहाँ उनका राजा उनकी रक्षा के लिए रहता था। लगभग पच्चीस साल पहले महल की रोशनियाँ धुँधला गयी थीं और मेवाड़ की पताका झुक गयी थी। लोग उदास थे क्योंकि राणा की सत्ता छिन गयी थी और उनके मंत्रियों का ख़जाने और ज़मीन की बंदोबस्ती पर दखल नहीं रहा था। पुराने शहर के लोग अभी भी उन दिनों को याद करते हैं जब सब कुछ हँसी-खुशी के साथ चल रहा था, जब राणा अपने सिंहासन पर बैठते थे और अपनी प्रजा से अमीर-गरीब के बिना किसी भेदभाव के मिलते थे। उन दिनों को शहर का कोई बाशिंदा नहीं भूल सकता जब उदयपुर अपनी प्रजा का हुआ करता था।

आज उन्हें पता है कि एक नया शहर इस पुराने शहर की दीवार के पार पनप चुका है। उन्होंने पक्की चौड़ी सड़क के दोनों ओर बन रहे साफ़-सुथरे मकानों की कतारें देखी हैं। इन मकानों में साफ़-सुथरे बागीचे हैं जहाँ हरी घास है और गुलाब खिलते हैं। स्वच्छ हवा, गोबर और उपलों की गंध से मुक्त है मगर इस नये शहर की कोई आत्मा नहीं है। इस नये शहर के लोगों का उदयपुर के अतीत से कोई वास्ता नहीं है, ये नये आये हुए लोग हैं। इनके पुरखे एक नहीं हैं। उन्हें पता नहीं है कि वे क्या किया करते थे। किस देवी-देवताओं को पूजते थे कैसे सुखों-दुखों के बीच जीते थे। मेवाड़ की मिट्टी से उनका कोई जुड़ाव नहीं है, वे रोजगार की तलाश में इस शहर में आये हैं, उन्हें यहाँ की झीलों और छोटी पहाड़ियों का सौंदर्य मोहित करता है जो उन्हें गर्मी के तपते हुए महीनों में भी राहत पहुँचाती है। इस नये शहर में गुलाबों के बागीचे अमीरों और ग़रीबों को अलग कर देते हैं, वे एक दूसरे को नहीं जानते, वे अलग-अलग जिन्दगियाँ जीते हैं। सिर्फ़ पक्की चौड़ी तारकोल की सड़क पर ही उनका साया है, चूँकि इस पर गीरबों को भी चलने का भी हक़ है।

इस नये शहर के लोग बार-बार पुराने शहर को समझने का यत्न करते हैं। वे समझ नहीं पाते कि क्यों लोग उन छोटी गलियों की घुटन और गंध से बाहर आकर उनके साथ नहीं जुड़ते जहाँ खुली हवा है और घर बनाने के लिए पर्याप्त ज़मीन है। उन्हें सबसे ज़्यादा चारदीवारी से घिरी पत्थर या संगमरमर की हवेलियाँ परेशान करती हैं। उन्हें लगता है उनके तहखानों में न जाने कितना सोना गड़ा पड़ा है। इन हवेलियों की बारीदरी में झाँकने का कोई रास्ता नहीं है। इनके झरोखे इतने ऊँचे होते हैं कि कोई उनके पार नहीं देख सकता। अंततः ये लोग इस पुराने शहर को इसके हाल पे छोड़ देते हैं, बिना इस बात की थाह पाये कि इन हवेलियों के जनानखानों और दीवानख़ानों में क्या गुज़रता है।

शहर के दूसरे अमीर-ग़रीबों की तरह संग्राम सिंह जी की हवेली भी एक गली में है। इसकी पहली बारादरी तीन सौ साल पहले बनी थी और उस समय महज तीन कमरे थे। मगर किसी बरगद की तरह एक बार जड़ जमा लेने के बाद इसने फैलना शुरू किया। आज इस हवेली में कई कमरे हैं और कई बारदरियाँ हैं। इसकी जडें मिट्टी में खूब गहरे धँस चुकी हैं और इसकी बुनियाद अब हिलने को नहीं है, हालाँकि इसी गली में कभी गर्म हवा ग़रीबों की लकड़ी की झोंपड़ियों को तहस-नहस करती है और कभी मानसून की बरसात उनकी मिट्टी की दीवारों को बहा ले जाती है।
संग्राम सिंह जी की हवेली का गली में कोई सानी नहीं है, हालाँकि यह शहर की सबसे बड़ी हवेली नहीं है। हवेली का कोई एक स्वरूप नहीं है और इसमें पत्थर और संगममर बेतरतीबी के साथ एक-दूसरे के ऊपर जड़ दिये गये लगते हैं। वक्त के साथ यह हवेली बड़ी होती चली गयी, अगर बिना किसी योजना के कहीं कहीं यह अपनी जगह से पीछे हटी हुई है और कहीं-कहीं यह इतना आगे निकल आयी है कि इस तिमंजिली हवेली से सटी हुई गली सँकरी हो गयी है।

हवेली का बाहर से भले ही कोई स्वरूप न हो मगर इसके भीतरी हिस्से में एक योजनाबद्धता है। इसकी बारादरियाँ हवेली को कई हिस्सों में बाँटती हैं। अपने में संपूर्ण हिस्सों का बँटवारा यहाँ ज़रूरी था क्योंकि उदयपुर की औरतें परदा करती हैं। उनकी गतिविधियाँ उनके अपने ज़नानख़ाने तक सीमित रहती हैं। बारादरियाँ उनके हिस्से को मर्दों के हिस्से से जोड़ती थीं। एक लंबे समय से चली आ रही तहज़ीब में सिर्फ़ कुछ नज़दीकी रिश्तेदार मर्दों को ज़नानख़ाने में दाख़िल होने की इज़ाज़त थी। इस पर भी क़ायदे से अपने आगमन की सूचना देकर ही मर्द ज़नानख़ाने में क़दम रखते थे। कभी हवेली के नौकर वहीं सो जाया करते थे जहाँ उन्हें अपनी दरी बिछाने की जगह मिल जाती थी, मगर अब उनकी भी अपनी बारादरी है। हालाँकि उनका हिस्सा हवेली की ऊँचाई पर नहीं है, बल्कि कुछ कदम नीचे है। उनकी बारादरी में कोई विभाजक दीवार नहीं है और नौकरानियाँ अपने मर्दों से बात करने के लिए आज़ाद है, उन्हें यह इंतज़ार नहीं करना होता कि हवेली पर रात का अंधियारा उतरे और वे अपने मर्दों के साथ अपने ख़याल बाँट सकें।
हवेली के भीतर कुछ भी गोपनीय नहीं है, हो भी नहीं सकता। यह एक घर है और सारी बारादरियाँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

संग्राम सिंह जी की मरमरी हवेली के नौकरों वाले हिस्से में एक तूफ़ानी रात को सीता का जन्म हुआ था। लछमी एक चटाई पर निढ़ाल पड़ी हुई थी और सरजू दाई उनके बगल में बैठी हुई थी। एक चिथड़े में लिपटी सीता अपनी माँ से सटी अँगूठा चूस रही थी।

सरजू ने थोड़ी देर इंतज़ार किया कि पानी रुक जाएगा। लेकिन जब उसने कड़कती हुई बिजली देखी, वह वहीं पाँव फैलाकर लेट गयी और अपने सर को कपड़ों के एक गट्ठर का सहारा दिया।

लड़की हुई है,’’ लछमी का पति गंगाराम बच्चे का रोना सुनकर अफ़सोस के साथ बुदबुदाया। वह और खयाली रसोइया जन्म का समाचार सुनने के लिए हवेली के सदन में बैठे हुए थे। गंगाराम का अंदाज़ा सही था, अगर लड़का हुआ होता तो सरजू इस बरसात और बिजली में भी चिल्लाती हुई आती : लड़का हुआ है ! नेग दो !’’ गंगाराम ने बीड़ी का एक लंबा कश खींचा और उसे हताशा के साथ दूर फेंक दिया।
‘‘फ़िक्र मत करो ! भगवान सबको देखता है। वही सबको दुनिया में भेजता है, मानता हूँ कि लड़कियाँ बोझ होती हैं, मगर कोई कर क्या सकता है ?’’

 ख़्याली ने हमदर्दी और स्नेह के लहज़े में कहा, ‘‘अब तक मैं क़िस्मत वाला रहा हूँ, लेकिन आगे की कौन जानता है ?’’ रसोइये ने जम्हाई लेते हुए कहा, ‘‘पता नहीं, नयी मालकिन को क्या कुछ होता है ? डॉक्टरनी तीन घंटे पहले गयी है। जो भी हो, जल्दी हो। आधी रात बीत चुकी है। पैसे वाले भूल जाते हैं कि नौकरों को भी आराम चाहिए।’’

‘‘अरे ! उसे तो बेटा होगा। अमीर जो चाहते हैं वह उन्हें मिल जाता है। बदनसीबी तो हम गरीबों की है ? गंगाराम ने कड़वाहट के साथ कहा। वह कुछ और कहना ही चाहता था कि सीढ़ियों पर पदचाप के साथ आँगन का दरवाज़ा चरमरा कर खुला, ‘‘कौन कहेगा कि इस हवेली में पन्द्रह-पन्द्रह नौकर हैं ? काम के वक़्त सब लापता रहते हैं। तुम्हें ख़ाली यह बुढ़िया ही दिखेगी।’’ पारी उन दोनों को तरेरती हुई बोली, ‘‘बारह घंटे से फिरकनी-सी डोल रही हूँ। डोलूँ भी क्यों न ? मालिक संग्राम सिंह की हवेली में पहली परपोती जो जन्मी है।’’ स्वर में कुछ अधिक बल देकर बोली, ‘‘लड़की हुई तो क्या ? इसका मतलब यह नहीं कि सारे नौकर ग़ायब हो जायें। यह बैठकर सुट्टा लगाने का समय है ? गंगा कहाँ है ?
वे दोनों चुपचाप बिना बोले खुले दरवाजे से आँगन में खिसक गये।
‘‘अरे ! ओ गंगा ! सुनता नहीं, मर गया क्या ?’’ पारी चिल्लाई। ‘‘जीजी मैं अभी नीचे गया था। लछमी को लड़की हुई है।’’ सीढ़ियों पर हाँफते हुए आकर गंगा ने कहा।

‘‘अरे तुम्हारी मालकिन को भी, ऊपर जाओ जल्दी। गप में समय बरबाद मत करो। तुम्हें देखकर तो ऐसा लगता है कि जैसे लड़की पाकर लछमी खुश हो। बेचारी को अभी से ही दान-दहेज की चिन्ता पकड़ लेगी। वह भी यदि बाप पर शक्ल गयी तो और भी मुश्किल।’’ नौकरों को काम का आदेश दे पारी ज़मीन पर पैर फैला बैठकर सुँघनी की डिब्बी निकाल कर सूँघने लगी।

हवेली के आठ नौकरों में से पारी भी एक थी, लेकिन अपनी कड़ी मेहनत, चतुराई और मालिकों की सेवा से पैंतालीस साल में उसने हवेली में एक खास रुतबा हासिल कर लिया था और परिवार के सदस्यों सी हो गयी थी। आठ साल की उम्र में उसके पिता ने उसे इस हवेली को सौंप दिया था। राजस्थान के भयंकर अकाल में तीन बच्चों को खोकर वह अपनी लाड़ली पारी को भूख के हवाले नहीं करना चाहते थे। यह राजस्थानी सामन्ती प्रथा की एक चलन थी। हालात से मजबूर ग्रामीण अपने बेटे-बेटियों को इन्हीं बड़े घरानों के सुपुर्द कर देते थे। इन बच्चों की सारी ज़िम्मेवारी शरणदाता की होती थी। पारी जब इस ‘जीवन-निवास’ में आयी उस समय संग्राम सिंह जी के पिता डॉ. राम सिंह जी इस हवेली के मालिक थे। इसने बचपन में ही मालकिन का दिल जीत लिया था। दो साल बाद इसका ब्याह हो गया मगर आज पचास साल बाद पारी को न तो ब्याह का दिन याद है और न ही अपने ही वैधव्य का। उसे बस हवेली में आने जाने वाली मालकिनें याद हैं, जिनकी इसने सेवा की थी। इसी सेवा के चलते इसे यह ख़ास रुतबा हासिल है। यह इस हवेली की चार पीढ़ियों के सुख-दुःख, जन्म-मरण में सहभागी रही है। इसे इस हवेली के सभी रीति-रिवाज तथा लेन-देन मालूम हैं। हवेली में आने वाली नववधुएँ उसी से घर के रीति-रिवाज सीखती थीं। उन्हें यह मालूम था कि पारी को इस घर में आदर मिलता है जो किसी रिश्तेदार को मिलता है। वह नाम मात्र की नौकरानी थी, लेकिन उसने अपने को नौकरानी से ज़्यादा कभी कुछ नहीं समझा मगर दूसरे नौकरों को उसकी हैसियत मालूम थी। वे उससे उसी तरह पेश आते थे। वे उसके हुक्म का मालकिन के हुक्म की तरह ही पालन करते थे।

आराम से पैर फैलाए बैठी हुई पारी उस बरसाती रात में ख़यालों में खो गयी थी। लड़की हुई तो क्या ?’’ अपने आप से वह बोली, आख़िरकार साठ साल में पहली बार चार पीढ़ियाँ एक साथ हवेली में हैं। इस लड़की के जन्म पर वही धूमधाम होनी चाहिए जो लड़के के जन्म के साथ हवेली में होती रही है। यहाँ बैठकर सपने देखने का समय नहीं है, मुझे चलना चाहिए, होनेवाली धूमधाम के बारे में सोचते ही वह हड़बड़ाकर उठी, सुँघनी की डिबिया को ब्लाउज़ में रखती हुई अन्दर चली गयी।





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